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इस गांव में सिंदूर नहीं लगाती महिलाएं, सजने-संवरने पर पाबंदी , डर का है साया!

इस गांव में सिंदूर नहीं लगाती महिलाएं, सजने-संवरने पर पाबंदी , डर का है साया!

विवाह संस्कार के बाद लड़की दूसरे कुल में जाती है और वहां अपनी जिम्मेदारियां निभाती हैं. हिंदू धर्म में शादी के समय 7 फेरों का विशेष महत्व माना गया है और मंत्रोच्चार के साथ फेरों की रस्म होती है. इस दौरान लड़का वधू यानी लड़की की मांग में सिंदूर भरता है. सिंदूर दान के बाद पैरों में बिछिया पहनाई जाती है. मांग में सिंदूर और पैरों में बिछिया एक सुहागिन की पहचान होती है. महिलाओं का 16 शृंगार सिंदूर और बिछिया के बिना अधूरा माना जाता है. लेकिन क्या आप जानते हैं कि छत्तीसगढ़ के धमतरी जिले स्थित एक गांव की महिलाएं मांग में न तो सिंदूर भरती हैं और न ही सोलह शृंगार आदि करती हैं. संदबहारा गांव की महिलाओं को चारपाई और कुर्सी पर बैठने तक की मनाही है.

गांव के ही शख्स बबलू कहते हैं, भले ही आज जमाना चांद सितारे पर चला गया है लेकिन दुनिया में कई ऐसी रूढ़िवादी परंपराएं भी चली आ रही हैं. लोग खौफ के साये या मजबूरी के चलते उन परंपराओं को मानते आ रहे हैं. कुछ ऐसा ही धमतरी में देखने को मिला है. इस गांव की औरतें न तो शृंगार करती हैं और न ही खाट पर सोती हैं. यहां तक लकड़ी की बनी हुई कोई भी वस्तु पर नहीं बैठती हैं और बारह माह जमीन पर ही सोती हैं. यह परंपरा गांव में सदियों पहले एक देवी के प्रकोप के चलती बनाई गई थी. बताया जाता है कि अगर कोई भी गांव में इसे तोड़ने की जुर्रत करता हैं तो आफत आ जाती है. जिसके चलते ये परंपरा आज तक बदस्तूर जारी है.

धमतरी जिला मुख्यालय से करीब 90 किलोमीटर की दूर नगरी इलाके में सदबहारा गांव है. गांव में तकरीबन 40 परिवार रहते हैं और यह गांव अपनी एक परंपरा के चलते जाना जाता है. यहां महिलाओं को शृंगार करने की मनाही है. ऐसी मान्यता है कि अगर महिलाएं ऐसा करेंगी, तो ज्यादा समय तक जिंदा नहीं रहेंगी या फिर उसे कोई न कोई बीमारी जरूर हो जाएगी.

दरअसल, इसके पीछे एक कहानी छिपी है. गांव के बुजुर्ग शिशुदास मानिक बताते हैं कि ऐसा करने से देवी नाराज हो जाती है और गांव पर संकट आ जाता है. गांव में ही एक पहाड़ी पर कारीपठ देवी का वास है.

गांव प्रमुख की मानें तो 1960 में एक बार गांव के लोगों ने इस परंपरा को तोड़ा था. जिसके बाद गांव की महिलाओं को कई तरह की बीमारियों ने घेर लिया था और मौतें भी होने लगीं. यहां तक कि जानवर मरने लगे और बच्चे बीमार होने लगे थे. सबको यही यही लगा कि ये देवी का प्रकोप है और परंपरा टूटने के कारण ऐसा हुआ. बस, तभी से किसी ने भी इस परंपरा तोड़ने की हिमाकत नहीं की.

एक महिला दिली बाई ने बताया कि गांव में कोई भी खुशी का पल जैसे दिवाली-दशहरा, तीज-त्यौहार हो या फिर शादी-ब्याह, लेकिन महिलाएं श्रृंगार नहीं करतीं. बिंदिया, पायल, लिपस्टिक तो दूर की बात है, यहां की महिलाएं मांग में सिंदूर तक नहीं भरती हैं. इसके पीछे सिर्फ एक डर है. जिसे गांव की कोई भी महिला आज तक तोड़ने की जुर्रत नहीं की है. यहां तक कि ये परंपरा इस गांव मे आने वाले दूसरे गांवों की महिलाओं पर भी लागू होती है.

हालांकि, महिलाओं के बैठने के लिए ईंट-सीमेंट के ओट औश्र  टीले का निर्माण किया गया है. घर के अंदर भी महिलाएं फर्श पर ही सोती हैं. किसी भी तरह के पलंग और चारपाई पर इन्हें सोने व बैठने की मनाही है. गांव में सभी लोग आज भी अंजाने खौफ के साये मे अपना जीवन बिता रहे हैं. हमेशा गांववालों को डर बना रहता है कि परंपरा तोड़ने से गांव मे कोई भी अनहोनी हो सकती है. हालांकि, कई समाजिक कार्यकर्ताओं ने यहां के लोगों को जाकर समझाया कि ये सब अधंविश्वास की बाते हैं. लेकिन गांववालों ने किसी की एक न सुनी और इस परंपरा को सदियों से निभाते आ रहे हैं.

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