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पितृ पक्ष हुआ शुरू, इस दौरान श्राद्ध और तर्पण का क्या है महत्व

पिता, पितृ और पूर्वज से हमें अपनी जड़ों का बोध होता है। पितृ को ही पितर भी कहते हैं। आध्यात्म के अनुसार एक स्थूल देह के अंत के बाद दशविधि और त्रयोदश कर्म-सपिण्डन तक दिवंगत आत्मा प्रेत शरीर में होती है। प्रेत यानी देह की अस्थायी व्यवस्था। सुरत अर्थात आत्मा पंचभौतिक देह के त्याग के बाद जिस अस्थायी देह को प्राप्त होती है उसे ही प्रेत शरीर कहते हैं। यूँ समझे कि एक दैहिक जीवन में बने प्रियजन, प्रियतम व प्रिय वस्तुओं के बिछोह की स्थिति प्रेत है।

पंचभौतिक देह के त्याग के बाद रूह में देह नष्ट होने के बाद भी काम, क्रोध लोभ, मोह, अहंकार, तृष्णा और क्षुधा शेष रह जाती है। सपिण्डन के बाद पश्चात वो जब अस्थायी प्रेत शरीर से नए तन में अवतरित होती है, पितृ कहलाती है। आध्यात्मिक मान्यताओं के अनुसार श्राद्धपक्ष पर पूर्वजों को सम्मान देने वाला कर्म तर्पण कहलाता है। वैदिक साहित्य के विस्तार में विशेष रूप से पुराणों में पितृ के मूल एवं प्रकारों के विषय में विशद वर्णन प्राप्त होता है। वायुपुराण में पितृ की तीन स्थितियों का वर्णन हैं। काव्य, बर्हिषद एवं अग्निष्वात्त्। वायु पुराण, वराह पुराण, पद्म पुराण और ब्रह्मण्ड पुराण ने पितृ के सात तरह के मूल का उल्लेख है, जो सत्रह तत्वों के लिंग शरीर में हैं। जिनमें चार मूर्तिमान् और तीन अमूर्तिमान् हैं। शतातपस्मृति में द्वादश पितृ सहित पिण्डभाज:, लेपभाज:, नान्दीमुखा: एवं अश्रुमुखा: के रहस्य का पता चलता है।

मान्यताएं कहती हैं कि आश्विन कृष्ण प्रतिपदा से लेकर अमावस्या तक विशिष्ट ब्रह्माण्डिय किरणें धरा का पूर्ण स्पर्श करती हैं और उन किरणों में ही पितृ ऊर्जा समाहित होती है। 15 दिवस के पश्चात शुक्लपक्ष की प्रतिपदा से पितृ के संग ब्रह्मांडीय किरणें वापस ब्रम्हाण्ड में लौट जाती हैं। इसलिए इस पखवाड़े पितृपक्ष कहते हैं।

आध्यात्म के नज़रिये पितृपक्ष रूह और रूहानी यानी आत्मा और आत्मिक उत्कर्ष का वो पुण्यकाल है, जिसमें कम से कम प्रयास से अधिकाधिक फलों की प्राप्ति सम्भव है। आध्यात्म, इस काल को जीवात्मा के कल्याण यानि मोक्ष के लिये सर्वश्रेष्ठ मानता है। जीवन और मरण के चक्र से परे हो जाने की अवधारणा को मोक्ष कहते हैं।

अपने पूर्वजों की आत्मिक संतुष्टि व शांति और मृत्यु के बाद उनकी निर्बाध अनन्त यात्रा के लिये पूर्ण श्रद्धा से अर्पित कामना, प्रार्थना, कर्म और प्रयास को हम श्राद्ध कहते है। इस पक्ष को इसके अदभुत गुणों के कारण ही पितृ और पूर्वजों से सम्बद्ध गतिविधियों से जोड़ा गया है। परम्पराओं के अनुसार इस काल में श्राद्ध, तर्पण, उपासना, प्रार्थना से पितृशांति के साथ जीवन के पूर्व कर्म जनित संघर्ष से मुक्ति का मार्ग प्रशस्त होता है।

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