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आत्मा को प्रेत योनि से मुक्त करता है गया में पिंडदान

गया तीर्थ का महत्व श्राद्ध पक्ष में बढ़ जाता है. गयाजी में पिंडदान करने के बाद श्राद्ध कर्म करने की आवश्यकता नहीं रहती. लेकिन जब तक पिंडदान ना किया जाए तब तक श्राद्ध कर्म जरूर करना चाहिए. इसलिए लोग गया तीर्थ में जाकर पिंडदान करते हैं. मृत्यु के बाद हर किसी की अलग-अलग गति होती है. मृत आत्मा को तर्पण का फल भी इसी आधार पर मिलता है.

किसी की भी मृत्यु के बाद उसे अपने कर्मों के अनुसार योनि प्राप्त होती है. अच्छे कर्मों के कारण देव योनि प्राप्त होती है और अगर उनके वंशज विभिन्न मंत्रों से अन्न अर्पित करते हैं और पिंडदान या श्राद्ध करते हैं तो उन पितरों के लिए ये अमृत पान सरीखा होता है. इसी तरह से अगर किसी के पितर पशु रूप में हैं तो उन्हें यह आनंद तिनके के रूप में प्राप्त होता है.

यदि किसी कारण से किसी पितर के कर्म खराब रहे होते हैं और वे प्रेत योनि में भटक रहे हैं तो यही अन्न उन्हें रक्त के रूप में प्राप्त होता है और यदि उन्हें मनुष्य योनि प्राप्त हुई है तो यही श्रद्धा पूर्वक किया गया अन्न का भोग उन्हें अन्य के रूप में ही प्राप्त होता है और वे तृप्त हो जाते हैं. इस प्रकार पूरे विधि-विधान और मंत्रोच्चारण के साथ अपने पूर्वजों के निमित्त पितृ पक्ष में श्राद्ध एवं दान पुण्य करना चाहिए ताकि वे पितृ चाहे किसी भी योनि में पहुंचे हों, उन्हें तृप्ति मिले और ऐसा करके हम अपना नैतिक दायित्व भी पूर्ण करते हैं क्योंकि हम उनके ही वंशज हैं.

गया तीर्थ के महात्म्य में बताया गया है कि पितृपक्ष के दौरान विशेष रूप से पितृ पृथ्वी पर उपस्थित होते हैं. उनकी यही अभिलाषा होती है कि उनके वंशज उनकी सद्गति के लिए उनके निमित्त पिंडदान करें अथवा उनका श्राद्ध कर्म करें. पितरों के लिए पूर्ण श्रद्धा के साथ जो कुछ भी अर्पित किया जाता है तथा जो कुछ भी नियम पूर्वक उन्हें सौंपा जाता है, वही श्राद्ध कहलाता है.

जब तक व्यक्ति का दसगात्र तथा षोडशी पिंडदान नहीं किया जाता वह प्रेत रूप में रहता है और सपिण्डन अर्थात पिंडदान के उपरांत ही वह पितरों की श्रेणी में शामिल हो जाता है. यही मुख्य वजह है कि किसी भी मृत व्यक्ति का पिंडदान किया जाता है. इसके एक मंत्र में भी समझाया गया है.

अर्थात् जो व्यक्ति अपने पितरों को तिल मिश्रित जल की तीन अंजलियां प्रदान करते हैं, उनके द्वारा उनके जन्म से तर्पण के दिन तक के सभी पापों का अंत हो जाता है. पितरों को तृप्ति प्रदान करने के उद्देश्य से

विभिन्न देवताओं ऋषियों तथा पितृ देवों को तिल मिश्रित जल अर्पित करने की क्रिया ही तर्पण कहलाती है. सामान्य तौर पर पिंडदान करने के बाद श्राद्ध कर्म करने की आवश्यकता नहीं रहती. लेकिन जब तक पिंडदान ना किया जाए तब तक श्राद्ध कर्म जरूर करना चाहिए. इसलिए लोग गया तीर्थ में जाकर पिंडदान करते हैं.

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